"मालिक जीवित है।"
स्वामी जी को योग साधना के द्वारा ज्ञात हो गया था कि अमुक दिन इस चोला से उनका सम्बंध विच्छेद हो जायेगा। निशिचत समय से दो दिन पूर्व वे बरियाही कोठी के अपने प्रिय शिष्य जान साहेब को एक पत्र लिख, बनगाँव से ''फटकी कुटी पर चोला छोड़ने के लिए चले गये।
महायात्रा के दिन वे नित्यकर्म से निवृत हो एक चौकी पर शान्त भाव में बैठ गये। यह समाधि की अवस्था थी। इसी अवस्था में वे एक बार झुक गये। उसी समय उन्होंने ऐहिक लीला संवरण कर ली। जब लोगों को मालूम हुआ कि बाबा एकाएक अचेत हो गये, तो चारों ओर से लोग उमड़ पड़े। उठाकर शय्या पर ले गये, किन्तु शीघ्र ही मालूम हो गया कि बाबा अब नहीं हैं। लोगों ने शोक अनुभव किया।
एक दिन सबको उस काल धर्म के पचड़े में पड़ना ही पड़ता है ब्राह्राण लोग उस शव को उठाकर श्मशान भूमि ले गये और वे विधि के अनुसार उनकी दाह-क्रिया का आयोजन किय। यधपि सन्यससी के लिए अगिन संस्कार विहित नहीं है, किन्तु स्वामी जी से लोगों का इतना घनिष्ठ संबंध था कि वे लोग उन्हें जनक की तरह गृहस्थ ही समझते थे।
गाँव के प्राय: सभी तथा आस-पास के सभी गण-मान्य लोग उनकी शव यात्रा में शामिल थे। केवल बाबा का एक टहलू अनुपसिथत था जो दुर्गाभाग्यवश दो-चार दिन पहले ही अपनी लड़की की ससुराल चला गया था।
चिंता निर्मित हुर्इ। लकड़ी डाली गर्इ। शव को स्नान करा, नवीन वस़् और जनेऊ पहनाकर, माथे में गंगोट एवे गोपी चन्दन लगा दिये गए, उस समय वे मृतक सा नहीं दिखते थे। मालूम होता था चिर समाधि में बैठे हुए हों। धैर्य बाँध कर लोगों ने उन्हें चिता पर सुलाया और मंत्रो च्चारण पूर्वक मुखगिन दी गयी। चिता धूँ-धूँ कर जलने लगी।
उसी दिन बाबा का टहलू, लड़की की ससुराल से घर लौट रहा था। जब गाँव के समीप पहुँचा तो दूर से किसी को आते देखा। जब निकट आया तो पहचाना कि वे बाबा थे और दिनों की तरह बाबा सफेद कपड़े पहने, खड़ऊ पर चढ़े, हाथ में लाठी लिए हुए थे। टहलू ने प्रणाम कर पूछा- ''बाबा, कहाँ जायेंगे? बाबा ने उत्तर दिय- ''काशी! टहलू ने चकित होकर पूछा- ''अकेले जायेंगे? बाबा न उत्तर दिया- ''कुछ लोग आगे गये और कुछ लोग पीछे आते हैं। बाबा के वे वाक्य रहस्यमय थे। ''चला जात संसार दिवश-निशि, कोउ आगे पिछुआना। उस रहस्य को भल अनपढ़ टहलू क्या समझ पाता। उसने समझा कुछ लोग आगे गए हैं और कुछ लोग पीछे से आयेंगे। उसने यह समझकर कदम बुलन्द किया कि ''मौका हाथ लगा तो मैं भी साथ हो लूँगा। किन्तु घर पर जाने से उसे दूसरी ही मुसीबत का सामना करना पड़ा।
घर पहुँचा तो देखा कि स्त्री रोने-सी सूरत बना कर एक ओर उदास बैठी है। आंगन में शोक की लहर छार्इ है। लाठी पटक कर कहीं बैठ गया और सोचा कि बेटी को कुशल पूछने तो सोना की माँ अवश्य आयेगी तथा हाथ-पाँव धोने को लोटा में पानी लायेगी ही। उसे क्या मालूम कि उसकी पत्नी अपने बाबा के वियोग में शोक मग्न हैं। कुछ समय बीत गए प रन्तु उसकी पत्नी ने नजर उठाकर भी न देखी। ख्याल हुआ कि 'शायद मेरे आने की खबर उसे नहीं मिली होगी। इसलिए जोड़ से खाँसने लगा किन्तु यह आवाज भी पत्नी को सावधान न कर सकी। आखिर टहलू की गर्मी उबल पड़ी और असभ्य भाषा में गालियों की बौछार करने लगा। अब उसकी पत्नी का गम गुस्से में बदल गया। तमक कर बोली- ''मुँह झौसा, मालिक मर गये उसका दु:ख ही न हीं और पाँव धोने के लाले पड़े हैं। टहलू ने दृढ़ स्वर में कहा- ''तू मरेगी, मालिक काहे को मरेगे? वे जीवित हैं। अभी-अभी तो काशी जा रहे थे। पत्नी ने उत्तर दिया ''वे तो चिता पर जल रहे हें और इनके मालिक काशी चले। तुम भी उनके साथ क्यों नहीं चला गया। हर बार तो जाता ही था। टहलू ने कहा- ''देखो, बाबा ने एक बार कहा था 'झूठ मत बोले। झूठ बोलना बहुत भारी पाप है, तब से मैं झूठ नहीं बोलता। तुम मेरी बातों पर विश्वास क्यों नहीं करती? स्त्री ने कहा- ''तुम को किसने कहा है कि वे जीवित हैं? टहलू- ''अरी चुड़ैल, मुझे किसी न नहीं कहा, मैंने खुद उनको काशी जाते हुए अमुक स्थान पर देखा है। स्त्री- ''या तो तुम पागल हो गये या स्वप्न देखे होगे।
दोनों के झगड़े को सुनकर पड़ोस की सित्रयाँ गमगीन चेहरा लिए आयीं और दोनों को दुत्कारती हुर्इ बोली ''बाबा के मरने से सारा गाँव शोक मग्न है और तुम दोनों की आज ही लड़ार्इ सूझी है? शर्म नहीं होती? अपने दुर्भाग्य पर रोओगे कहाँसे तो आपस में झगड़ रहे हो? सबों का चेहरा उदास और दु:खी देख कर विसिमत और कुछ विश्वस्त स्वर में टहलू ने कहा- ''अरे, मेरी बातों का कोर्इ विश्वास ही नहीं करता? मैं स्वये उन्हें सड़क पर पशिचम दिशा में जाते देखा है और पूछा कि बाबा कहाँ जाते हैं। उन्होंने उत्तर दिया- ''काशी पड़ोसिनों ने उत्तर दिया- ''आँख का धोखा है, बगीचे में जाकर देखो की लोग उन्हें जला रहे हैं या नहीं। प्रत्यक्ष को प्रमाण क्या?
वह तिलमिला कर उठा और बगीचे की ओर चला। दूर से देखा सचमुच में लोग मुर्दा जला रहे हैं, फिर भी पूरा विश्वास नहीं हुआ। पास गया किन्तु शरीर की वह अवस्था कहाँ कि पहचान आ सके। इसलिए भ्रम बना ही रहा। लोगों ने कहा- ''अभी भाग्य से आ गया, तुम भी मालिक पर पाँच लकडि़याँ चढ़ा दो। टहलू ने पूछा- ''क्या मालिक मर गये? मैंने उन्हें रास्ते में कैसे देखा? लोगों ने पूछा- ''तुमने रास्ते में क्या देखा उसने सारी कहानी कह सुनार्इ। सुनकर किसी ने कहा- ''वे सचमुच में मर गये, हो सकता है तुमको धोका हुआ होगा या उनके प्रतिबिम्ब का दर्धन हुआ होगा। वह मूर्छित होकर गिर पड़ा और व्याकुल होकर रोने लगा। लोगों ने समझा-बुझाकर उससे भी पाँच काठी दिलवार्इ।
उसका स्वामी जी के जीवित नहीं रहने का विश्वास, तब निर्मूल हुआ जब बहुत दिनों तक वे उस महायात्रा से नहीं लौटे।
स्वामी जी को योग साधना के द्वारा ज्ञात हो गया था कि अमुक दिन इस चोला से उनका सम्बंध विच्छेद हो जायेगा। निशिचत समय से दो दिन पूर्व वे बरियाही कोठी के अपने प्रिय शिष्य जान साहेब को एक पत्र लिख, बनगाँव से ''फटकी कुटी पर चोला छोड़ने के लिए चले गये।
महायात्रा के दिन वे नित्यकर्म से निवृत हो एक चौकी पर शान्त भाव में बैठ गये। यह समाधि की अवस्था थी। इसी अवस्था में वे एक बार झुक गये। उसी समय उन्होंने ऐहिक लीला संवरण कर ली। जब लोगों को मालूम हुआ कि बाबा एकाएक अचेत हो गये, तो चारों ओर से लोग उमड़ पड़े। उठाकर शय्या पर ले गये, किन्तु शीघ्र ही मालूम हो गया कि बाबा अब नहीं हैं। लोगों ने शोक अनुभव किया।
एक दिन सबको उस काल धर्म के पचड़े में पड़ना ही पड़ता है ब्राह्राण लोग उस शव को उठाकर श्मशान भूमि ले गये और वे विधि के अनुसार उनकी दाह-क्रिया का आयोजन किय। यधपि सन्यससी के लिए अगिन संस्कार विहित नहीं है, किन्तु स्वामी जी से लोगों का इतना घनिष्ठ संबंध था कि वे लोग उन्हें जनक की तरह गृहस्थ ही समझते थे।
गाँव के प्राय: सभी तथा आस-पास के सभी गण-मान्य लोग उनकी शव यात्रा में शामिल थे। केवल बाबा का एक टहलू अनुपसिथत था जो दुर्गाभाग्यवश दो-चार दिन पहले ही अपनी लड़की की ससुराल चला गया था।
चिंता निर्मित हुर्इ। लकड़ी डाली गर्इ। शव को स्नान करा, नवीन वस़् और जनेऊ पहनाकर, माथे में गंगोट एवे गोपी चन्दन लगा दिये गए, उस समय वे मृतक सा नहीं दिखते थे। मालूम होता था चिर समाधि में बैठे हुए हों। धैर्य बाँध कर लोगों ने उन्हें चिता पर सुलाया और मंत्रो च्चारण पूर्वक मुखगिन दी गयी। चिता धूँ-धूँ कर जलने लगी।
उसी दिन बाबा का टहलू, लड़की की ससुराल से घर लौट रहा था। जब गाँव के समीप पहुँचा तो दूर से किसी को आते देखा। जब निकट आया तो पहचाना कि वे बाबा थे और दिनों की तरह बाबा सफेद कपड़े पहने, खड़ऊ पर चढ़े, हाथ में लाठी लिए हुए थे। टहलू ने प्रणाम कर पूछा- ''बाबा, कहाँ जायेंगे? बाबा ने उत्तर दिय- ''काशी! टहलू ने चकित होकर पूछा- ''अकेले जायेंगे? बाबा न उत्तर दिया- ''कुछ लोग आगे गये और कुछ लोग पीछे आते हैं। बाबा के वे वाक्य रहस्यमय थे। ''चला जात संसार दिवश-निशि, कोउ आगे पिछुआना। उस रहस्य को भल अनपढ़ टहलू क्या समझ पाता। उसने समझा कुछ लोग आगे गए हैं और कुछ लोग पीछे से आयेंगे। उसने यह समझकर कदम बुलन्द किया कि ''मौका हाथ लगा तो मैं भी साथ हो लूँगा। किन्तु घर पर जाने से उसे दूसरी ही मुसीबत का सामना करना पड़ा।
घर पहुँचा तो देखा कि स्त्री रोने-सी सूरत बना कर एक ओर उदास बैठी है। आंगन में शोक की लहर छार्इ है। लाठी पटक कर कहीं बैठ गया और सोचा कि बेटी को कुशल पूछने तो सोना की माँ अवश्य आयेगी तथा हाथ-पाँव धोने को लोटा में पानी लायेगी ही। उसे क्या मालूम कि उसकी पत्नी अपने बाबा के वियोग में शोक मग्न हैं। कुछ समय बीत गए प रन्तु उसकी पत्नी ने नजर उठाकर भी न देखी। ख्याल हुआ कि 'शायद मेरे आने की खबर उसे नहीं मिली होगी। इसलिए जोड़ से खाँसने लगा किन्तु यह आवाज भी पत्नी को सावधान न कर सकी। आखिर टहलू की गर्मी उबल पड़ी और असभ्य भाषा में गालियों की बौछार करने लगा। अब उसकी पत्नी का गम गुस्से में बदल गया। तमक कर बोली- ''मुँह झौसा, मालिक मर गये उसका दु:ख ही न हीं और पाँव धोने के लाले पड़े हैं। टहलू ने दृढ़ स्वर में कहा- ''तू मरेगी, मालिक काहे को मरेगे? वे जीवित हैं। अभी-अभी तो काशी जा रहे थे। पत्नी ने उत्तर दिया ''वे तो चिता पर जल रहे हें और इनके मालिक काशी चले। तुम भी उनके साथ क्यों नहीं चला गया। हर बार तो जाता ही था। टहलू ने कहा- ''देखो, बाबा ने एक बार कहा था 'झूठ मत बोले। झूठ बोलना बहुत भारी पाप है, तब से मैं झूठ नहीं बोलता। तुम मेरी बातों पर विश्वास क्यों नहीं करती? स्त्री ने कहा- ''तुम को किसने कहा है कि वे जीवित हैं? टहलू- ''अरी चुड़ैल, मुझे किसी न नहीं कहा, मैंने खुद उनको काशी जाते हुए अमुक स्थान पर देखा है। स्त्री- ''या तो तुम पागल हो गये या स्वप्न देखे होगे।
दोनों के झगड़े को सुनकर पड़ोस की सित्रयाँ गमगीन चेहरा लिए आयीं और दोनों को दुत्कारती हुर्इ बोली ''बाबा के मरने से सारा गाँव शोक मग्न है और तुम दोनों की आज ही लड़ार्इ सूझी है? शर्म नहीं होती? अपने दुर्भाग्य पर रोओगे कहाँसे तो आपस में झगड़ रहे हो? सबों का चेहरा उदास और दु:खी देख कर विसिमत और कुछ विश्वस्त स्वर में टहलू ने कहा- ''अरे, मेरी बातों का कोर्इ विश्वास ही नहीं करता? मैं स्वये उन्हें सड़क पर पशिचम दिशा में जाते देखा है और पूछा कि बाबा कहाँ जाते हैं। उन्होंने उत्तर दिया- ''काशी पड़ोसिनों ने उत्तर दिया- ''आँख का धोखा है, बगीचे में जाकर देखो की लोग उन्हें जला रहे हैं या नहीं। प्रत्यक्ष को प्रमाण क्या?
वह तिलमिला कर उठा और बगीचे की ओर चला। दूर से देखा सचमुच में लोग मुर्दा जला रहे हैं, फिर भी पूरा विश्वास नहीं हुआ। पास गया किन्तु शरीर की वह अवस्था कहाँ कि पहचान आ सके। इसलिए भ्रम बना ही रहा। लोगों ने कहा- ''अभी भाग्य से आ गया, तुम भी मालिक पर पाँच लकडि़याँ चढ़ा दो। टहलू ने पूछा- ''क्या मालिक मर गये? मैंने उन्हें रास्ते में कैसे देखा? लोगों ने पूछा- ''तुमने रास्ते में क्या देखा उसने सारी कहानी कह सुनार्इ। सुनकर किसी ने कहा- ''वे सचमुच में मर गये, हो सकता है तुमको धोका हुआ होगा या उनके प्रतिबिम्ब का दर्धन हुआ होगा। वह मूर्छित होकर गिर पड़ा और व्याकुल होकर रोने लगा। लोगों ने समझा-बुझाकर उससे भी पाँच काठी दिलवार्इ।
उसका स्वामी जी के जीवित नहीं रहने का विश्वास, तब निर्मूल हुआ जब बहुत दिनों तक वे उस महायात्रा से नहीं लौटे।
सत्य वचन
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