नवान्न का दिन था। परसरमा के एक जमींदार ने सबेरे आकर बाबा जी को निमंत्रण दे दिया। पड़ोसी के नाते उन्होंने स्वीकार भी कर लिया। कुछ ही समय बाद पंचगछिया के दूसरे प्रतिषिठत जमींदार सवारी के साथ नवान्न का निमंत्रण देने पहुँचे। आप पहले जमींदार के मित्र थे। निमंत्रण का आशय पर स्वामी जी ने कहा- ''मैं तुम्हारे मित्र का निमंत्रण स्वीकार कर चुका हूँ। उसको मनाओ अगर वे मान जायें तो मुझे तुम्हारा निमंत्रण स्वीकार करने में कोर्इ आपत्ति नहीं। अन्यथा लाचारी है, कारण नवान्न का समय 10 बजे से 11 बजे दिन तक ही है। फिर परसरमा से पंचगछिया 7-10 मील दूरी का भोजनोपरान्त एक घंटा में तय करना आसान नहीं।
पंचगछिया वाले बाबू साहेब अपने मित्र के यहाँ पहुँचे और कहा- ''मित्रवर! मैं पहले ही बाबा को निमंत्रण देने का संकल्प कर चुका हूँ। अत: आठ-दस मील की दूरी तय कर सबेरे-सबेरे आया हूँ। लेकिन मालूम हुआ कि आप पहले ही निमंत्रण दे चुके हैं। अत: मेरा आग्रह और निवेदन है कि आप उन्हें छोड़ दें अन्यथा वे मेरा निमंत्रण स्वीकार नहीं करेंगे। आपके तो घर के आदमी हैं जब चाहेंगे खिला सकते हैं।
परसरमा वाले बाबू साहब ने उत्तर दिया- ''स्वामी जी एक तो ब्राह्राण और दूसरे महात्मा हैं। मैं निमंत्रण दे चुका हूँ, अब आपका प्रस्ताव स्वीकार नहीं कर सकता। मैं भी राजपूत हूँ, मुझसे यह अनुचित कर्म न करावें, यह मेरी प्रार्थना है।
पंचगछिया के बाबू साहेब निराश होकर स्वामी जी के पास पहुँचे और सम्मान भाव से कहा- ''बाबा वे राजी नहीं हुए। मेरे भाग्य में नहीं लिखा था कि आपके चरण से मेरा घर पवित्र हो। उनके सम्मान भाव से स्वामी जी पिघल गये और कहा- ''आप अपनी सवारी छोड़ते जाइये मैं आने की चेष्टा करूँगा। बाबू साहेब ने कहा- ''बाबा! नवान्न का समय एक ही है, कितनी भी तेज सवारी क्यों न हो पर पहुँचना सम्भव नहीं। किन्तु, श्रीमान का शुभागमन तो सर्वदा मेरे लिये कल्याण कारक है। स्वामी जी ने कहा- ''परमेश्वर की जैसी मरजी। मनुष्य को यन्त करना चाहिए। तुम आगे बढ़ो।
बाबू साहेब सिर पर पाँव रखकर दौड़े। मन में अपार हर्ष था कि कोर्इ समय हो, बाबा का चरण तो मेरे घर को पवित्र करेगा।
उनके चले जाने के बाद बाबा ने कोचवान को कहा- ''तुम भी तेजी के साथ आगे बढ़ो। रास्ते में मैं तुम को पकड़ लूँगा।
परसरमा के बाबू साहब ने स्वामी जी को साढ़े दस-पौने ग्यारह बजे होमादि के बाद भोजन कराये। भोजनोपरान्त प्रेमपूर्वक बाबा को दरवाजा पर बैठाया। बाबू साहब स्वामी जी के निकट बैठे जमात को समझाने लगे कि किस प्रकार अपने मित्र के पंजे से बाबा को छुड़ा लाये।
उधर जब घोड़ा गाड़ी पंचगछिया के समीप पहुँची तो स्वामी जी ने पीछे से आवाज दी- ''कोचवान गाड़ी खड़ी करो। कोचवान ने मुड़कर देखा तो बाबा ही थे। उसने गाड़ी खड़ी कर दी। बाबा ठीक साढ़े दस, पौने ग्यारह बजे पंचगछिया के बाबू साहेब के यहाँ उपसिथत थे। स्वामी जी के शुभागमन की खबर सुनकर बाबू साहेब को बेहद खुशी हुर्इ। स्वागत कर दरवाजा पर ले गये। पलंग पर बैठा कर स्वयं पाँव धोये। होमादि समाप्त कर श्रऋापूर्वक भोजन कराये। भोजनोपरान्त दरवाजे पर ले गया। बाबा का नाम सुनकर लोग उमड़ पड़े। बाबू साहेब लोगों को प्रात: काल के वृतांत को दुहराने लगे।
पंचगछिया के बाबू साहेब समझ रहे थे कि स्वामी जी वहाँ भोजन न कर यहीं भोजन करने आये हैं। क्योंकि ठीक दस बजे भी भोजन कर चलने से नवान्न के निशिचत समय के अन्दर नहीं आ सकते थे। सीधे यहीं आ गये हैं।
कुछ समय बाद जब पंचगछिया वाले बाबू साहेब की भेंट अपने मित्र से हुर्इ तो कृतज्ञता व्यक्त करते हुए उन्होंने कहा- ''मित्र! मेरे लौटने के बाद आपने जो बाबा को छोड़ दिया कि वे नवन्न समय के अन्दर ही साढ़े दस, पौने ग्यारह बजे मेरे यहाँ पधार सके, इसके लिए आपको हार्दिक धन्यवाद। विसिमत होकर परसरमा वाले बाबू साहेब ने कहा- ''मित्र आपको धोका हुआ है। साढ़े दस, पौने ग्यारह बजे तो बाब मेरे यहाँ भोजनोपरान्त, दरवाजे पर बैठ कर लोगों से वार्तालाप कर रहे थे। फिर आपके यहाँ पहुँचने का प्रश्न ही नहं उठा। इस प्रकार अपने यहाँ की उपसिथति को सत्य और दूसरे के यहाँ की उपसिथत पर सन्देह व्यक्त करते हुए वार्तालाप बढ़ता गया। एक दूसरे को उपसिथति की प्रामणिकता को अधिक पुष्ट करने के लिए गवाह देते गये।
श्रीकृष्ण और मत्स्येंद्रनाथ के योग बल का जिन्हें परिचय होगा उन्हें स्वामी जी के योग द्वारा दो रूप बनाने का आश्चर्य नहीं होगा।
पंचगछिया वाले बाबू साहेब अपने मित्र के यहाँ पहुँचे और कहा- ''मित्रवर! मैं पहले ही बाबा को निमंत्रण देने का संकल्प कर चुका हूँ। अत: आठ-दस मील की दूरी तय कर सबेरे-सबेरे आया हूँ। लेकिन मालूम हुआ कि आप पहले ही निमंत्रण दे चुके हैं। अत: मेरा आग्रह और निवेदन है कि आप उन्हें छोड़ दें अन्यथा वे मेरा निमंत्रण स्वीकार नहीं करेंगे। आपके तो घर के आदमी हैं जब चाहेंगे खिला सकते हैं।
परसरमा वाले बाबू साहब ने उत्तर दिया- ''स्वामी जी एक तो ब्राह्राण और दूसरे महात्मा हैं। मैं निमंत्रण दे चुका हूँ, अब आपका प्रस्ताव स्वीकार नहीं कर सकता। मैं भी राजपूत हूँ, मुझसे यह अनुचित कर्म न करावें, यह मेरी प्रार्थना है।
बाबू साहेब सिर पर पाँव रखकर दौड़े। मन में अपार हर्ष था कि कोर्इ समय हो, बाबा का चरण तो मेरे घर को पवित्र करेगा।
उनके चले जाने के बाद बाबा ने कोचवान को कहा- ''तुम भी तेजी के साथ आगे बढ़ो। रास्ते में मैं तुम को पकड़ लूँगा।
परसरमा के बाबू साहब ने स्वामी जी को साढ़े दस-पौने ग्यारह बजे होमादि के बाद भोजन कराये। भोजनोपरान्त प्रेमपूर्वक बाबा को दरवाजा पर बैठाया। बाबू साहब स्वामी जी के निकट बैठे जमात को समझाने लगे कि किस प्रकार अपने मित्र के पंजे से बाबा को छुड़ा लाये।
उधर जब घोड़ा गाड़ी पंचगछिया के समीप पहुँची तो स्वामी जी ने पीछे से आवाज दी- ''कोचवान गाड़ी खड़ी करो। कोचवान ने मुड़कर देखा तो बाबा ही थे। उसने गाड़ी खड़ी कर दी। बाबा ठीक साढ़े दस, पौने ग्यारह बजे पंचगछिया के बाबू साहेब के यहाँ उपसिथत थे। स्वामी जी के शुभागमन की खबर सुनकर बाबू साहेब को बेहद खुशी हुर्इ। स्वागत कर दरवाजा पर ले गये। पलंग पर बैठा कर स्वयं पाँव धोये। होमादि समाप्त कर श्रऋापूर्वक भोजन कराये। भोजनोपरान्त दरवाजे पर ले गया। बाबा का नाम सुनकर लोग उमड़ पड़े। बाबू साहेब लोगों को प्रात: काल के वृतांत को दुहराने लगे।
पंचगछिया के बाबू साहेब समझ रहे थे कि स्वामी जी वहाँ भोजन न कर यहीं भोजन करने आये हैं। क्योंकि ठीक दस बजे भी भोजन कर चलने से नवान्न के निशिचत समय के अन्दर नहीं आ सकते थे। सीधे यहीं आ गये हैं।
कुछ समय बाद जब पंचगछिया वाले बाबू साहेब की भेंट अपने मित्र से हुर्इ तो कृतज्ञता व्यक्त करते हुए उन्होंने कहा- ''मित्र! मेरे लौटने के बाद आपने जो बाबा को छोड़ दिया कि वे नवन्न समय के अन्दर ही साढ़े दस, पौने ग्यारह बजे मेरे यहाँ पधार सके, इसके लिए आपको हार्दिक धन्यवाद। विसिमत होकर परसरमा वाले बाबू साहेब ने कहा- ''मित्र आपको धोका हुआ है। साढ़े दस, पौने ग्यारह बजे तो बाब मेरे यहाँ भोजनोपरान्त, दरवाजे पर बैठ कर लोगों से वार्तालाप कर रहे थे। फिर आपके यहाँ पहुँचने का प्रश्न ही नहं उठा। इस प्रकार अपने यहाँ की उपसिथति को सत्य और दूसरे के यहाँ की उपसिथत पर सन्देह व्यक्त करते हुए वार्तालाप बढ़ता गया। एक दूसरे को उपसिथति की प्रामणिकता को अधिक पुष्ट करने के लिए गवाह देते गये।
श्रीकृष्ण और मत्स्येंद्रनाथ के योग बल का जिन्हें परिचय होगा उन्हें स्वामी जी के योग द्वारा दो रूप बनाने का आश्चर्य नहीं होगा।
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