एक बार दो पहर रात में 15-20 नागाओं का एक झुंड बनगाँव बाबा जी की कुटी पर पहुँचा। भंडारी ने उनलोगों का स्वागत किया और पूछा- ''आपलोग भोजन बनायेंगे या मैं अपने आदमी द्वारा बनवा दूँ? उन्होंने कहा- ''हमलोग खीर खाएँगे, आप अपने आदमी द्वारा बनवा दीजिये। भंडारी ने कहा- ''राम बहुत हो गर्इ है। अभी दूध मिलना कठिन है। अत: खीर अभी नहीं बन सकती।
नागाओं ने अपना हठ प्रयोग किया। इन्होंने कहा- ''तब हमलोग नहीं खायेंगे, खिलाना हो तो खीर खिलाओ। भंडारी ने स्वामी जी से सब हाल कह सुनाया। स्वामी जी ने कहा- ''रसोर्इ बनाकर खिला दो। भंडारी- ''वे खायें तब तो! वे कहते हैं कि खीर के सिवाय कुछ नहीं खा सकते। स्वामी जी- ''अच्छा! तो टोकना में पानी चढ़ा दो। जब पानी खौलने लगे तब खबर देना। सरबा के भाग्य में मिटटी ही लिखा है, तो मैं क्या कर सकता हूँ?
भंडारी ने नौकर और रसोइया को जगा कर चौका लगवा दिया। जब पानी खौलने लगा तब स्वामी जी को खबर दी गर्इ। स्वामी जी ने कहा- ''रास्ते पर का बालू छानकर उसमें डाल दो। कुछ देर के बाद उतार देना। भंडारी ने वैसा ही किया। रसोर्इया ने परीक्षा की, तो खीर अच्छी बनी थी। अतिथि को बुलाकर भोजन करवाया गया। वे लोग खाते और प्रशंसा करते, वाह! कैसी खीर बनी है। खाना खाकर सब सो गये और रात चैन से कटी।
सबेरा हुआ, सब कोर्इ बाह्रा भूमि गये। जब सब मैदान से निबट चुके और एकत्र हुए तो एक ने अपने अन्तरंग साथी से कहा- ''भार्इ मेरा पेट खराब हो गया है। पैखाने में आज बिल्कुल मिटटी ही निकली है। मित्र ने जवाब दिया- यह बीमारी आज मुझे भी हो गर्इ है। इस बात के फैलने पर सबों ने स्वीकार किया कि आज मल की जगह मिटटी ही सबों के पैखाने में उतरी है। सबों ने निष्कर्ष निकाला कि रात में खीर की जगह मिटटी ही खार्इ गर्इ है। कुटी पर पहुँच कर उनलोगों ने स्वामी जी से पूछा- ''बाबा हमलोगों के पैखाने में आज मिटटी निकली है। इसका क्या कारण?
स्वामी जी ने तीव्र स्वर में उत्तर दिया- ''तुम लोगों ने रसोर्इ बनाना अस्वीकार किया। इतनी रात को दूध कहाँ से आता? तब कुएँ के पानी और राह की मिटटी से काम लेना पड़ा। अतिथियों को भूखे कैसे रहने देते? नागाओं ने पूछा- ''बाबा, खाने में तो दूध की खीर से भी अच्छी मालूम पड़ती थी, इसीलिए हमलोग अघाकर खाये। कोर्इ खराबी तो नहीं करेगी? स्वामी जी ने कहा- ''खराबी क्या होगी? समझ जाओं, दुराग्रह का प्रायशिचत तुम लोगों को करना पड़ा। ऐसा हठ फिर नहीं करना। अगर कोर्इ गृहस्थ होता तो उसे अपनी प्रतिष्ठा बचाने के लिए कितनी कठिनार्इयाँ झेलनी पड़ती?
नागाओं ने अपना हठ प्रयोग किया। इन्होंने कहा- ''तब हमलोग नहीं खायेंगे, खिलाना हो तो खीर खिलाओ। भंडारी ने स्वामी जी से सब हाल कह सुनाया। स्वामी जी ने कहा- ''रसोर्इ बनाकर खिला दो। भंडारी- ''वे खायें तब तो! वे कहते हैं कि खीर के सिवाय कुछ नहीं खा सकते। स्वामी जी- ''अच्छा! तो टोकना में पानी चढ़ा दो। जब पानी खौलने लगे तब खबर देना। सरबा के भाग्य में मिटटी ही लिखा है, तो मैं क्या कर सकता हूँ?
भंडारी ने नौकर और रसोइया को जगा कर चौका लगवा दिया। जब पानी खौलने लगा तब स्वामी जी को खबर दी गर्इ। स्वामी जी ने कहा- ''रास्ते पर का बालू छानकर उसमें डाल दो। कुछ देर के बाद उतार देना। भंडारी ने वैसा ही किया। रसोर्इया ने परीक्षा की, तो खीर अच्छी बनी थी। अतिथि को बुलाकर भोजन करवाया गया। वे लोग खाते और प्रशंसा करते, वाह! कैसी खीर बनी है। खाना खाकर सब सो गये और रात चैन से कटी।
स्वामी जी ने तीव्र स्वर में उत्तर दिया- ''तुम लोगों ने रसोर्इ बनाना अस्वीकार किया। इतनी रात को दूध कहाँ से आता? तब कुएँ के पानी और राह की मिटटी से काम लेना पड़ा। अतिथियों को भूखे कैसे रहने देते? नागाओं ने पूछा- ''बाबा, खाने में तो दूध की खीर से भी अच्छी मालूम पड़ती थी, इसीलिए हमलोग अघाकर खाये। कोर्इ खराबी तो नहीं करेगी? स्वामी जी ने कहा- ''खराबी क्या होगी? समझ जाओं, दुराग्रह का प्रायशिचत तुम लोगों को करना पड़ा। ऐसा हठ फिर नहीं करना। अगर कोर्इ गृहस्थ होता तो उसे अपनी प्रतिष्ठा बचाने के लिए कितनी कठिनार्इयाँ झेलनी पड़ती?
धन्य थे बाबा और दिव्य उनकी लीला
जवाब देंहटाएंBaba ji ka bhajanabali kaha uplabdha hai?
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